Saturday, 15 November 2008


Being a Woman
Long long ago during my adolescence I read this Hindi poem and just copied it. Then I was horrified to know that I am also a girl and today also I am frightened because I am a mother of two girls. At that moment I could not understand this poem in totality but now today I can understand it completely in its vivid and right contexts:
लडक़ी
वह नहीं जानती उसका होना
इतना दुष्कर होगा
वह नहीं जानती
वह आदमी कब उसके शरीर में जा छिपा
जो निरन्तर उसे अपमानित व परास्त कर रहा है
उसका उत्साह
निश्चित ताकतवर है
वह जानती है
उसकी आक्रामक मुद्रा में
कौनसा डर दुबक गया है
जो उसे अन्दर तक खाली कर रहा है
बार-बार उसका विश्वास
जीने के मोह के बाहर
उसे व्याकुल बनाता है
उसका अर्न्तमन
साफ-साफ दिख रहे समय के भीतर
दिलचस्प झूठ में लथपथ होकर
जो बन रहा है, वह कितना भयावह होगा
उसकी कल्पना में प्रसन्न चित्रों के रंग
किस कदर स्याह हो चुके हैं
वह नहीं जानती।
वह नहीं जानती
अपने विरुध्द अपने को तैयार करना
कितना दु:ख भरा साहस है।

And now some time back I read this Hindi poem by famous writer "Tasleema Nasreen".
तुम लडक़ी हो,
यह अच्छी तरह याद रखना,
तुम जब घर की चौखट लांघोगी,
लोग तुम्हें टेढी-मेढी नजरों से देखेंगे।
तुम जब गली से होकर गुजरोगी,
लोग तुम्हारा पीछा करेंगे,
सीटी बजाएंगे!
तुम जब गली पार करके
मुख्य सडक़ तक पहुँचोगी,
लोग तुम्हें चरित्रहीन कह कर
गालियाँ देंगे।
तुम व्यर्थ होओगी, अगर पीछे लौटोगी
वरना, जैसे जा रही हो जाओ!

Oh! Nothing has changed, same heinous feelings of being a female, it does not make any difference whether it is this country or that religion. Even if you don't cross the door that also does not ensure your safety at home! If those females who go out of villages to study are not safe then are those females who live in villages under long veils can feel safe?Harassment, sexual violence, mental tension, everything is same. The only change that is visible is that now these things cannot go unnoticed even when Honorable Supreme Court also does not give justice to Bhanvari Devi. Now the statistics do not increase rather the volume of these cries have become really bold and loud. Women are now all set to shed this wrong habit of so called tolerance. She has been told by this religion and male dominated society since ages, "Tolerate! But don't say a word, you will lose your prestige and place; we would not lose anything because we are males!" Religion was never with women. Right from the Vedic era to today's constitution there are hundreds and hundred pages written on female equality and devotion to her. Reality tells a different story; so far all the way it is only a glorified paradox. Is it not sad that in this country there is lot of noise on cow slaughter or temple-mosque disputes but no one talks about abortion of female fetus. Even doctors also forget their noble profession's oath. I happen to be a witness of this heinous crime‚ when I saw a gynecologist misguiding a village couple. There are no serious restriction and legislation; this issue has been neglected for a long time. All religions and all strata of our society are equally responsible for promoting this evil practice. Inheritance laws are also tilted in favor of male offspring. None of the successive governments have been successful in controlling dowry custom; all awareness, noise and ineffective laws can not help female. She is still considered a burden due to economic problems. Religion, custom, wrong practices and male discrimination are not only responsible for this sorry state of Indian woman, up to certain extent she herself is also to be blamed. If she is a mother, she should oppose abortion of female fetus. If she is a daughter then she should oppose the dowry system. She should stand up and oppose to physical abuse and rape.
Our constitution clearly says that there should not be any discrimination on the basis of sex and the women are also empowered with the right of voting but still she is neglected even for basic health services and literacy. However, the government seems to be helpless as in reality nothing reaches to her.After independence there have been a few progressive women who have made their place in this all male dominating world by using their freedom but a common woman still remains in her own cocoon. Slowly now the women are getting onto the path of progress through the medium of education. She has come forward to acclaim her place in a variety of fields. As an educated housewife and mother she had given right direction to the family and provided a new vision to the next generation. There are no two thoughts that women has awakened to her rights but on the darker side she still continues to suffer from lot of physical and emotional excesses.The empowerment of women is directly connected to the family, society and in turn to the development of the country. The cruelty with women is very painful, for her and her family and also shameful for society and country. A single crime with a woman reverses all forwarding steps of other women and the chain of development breaks up. There should be a positive change in attitude of man, society, religion and government so that woman can be given a fair chance to develop without any fear.
– Manisha Kulshrestha

Wednesday, 22 October 2008

मेल कराती मधुशाला!

हाल ही में मिले एक पाकिस्तानी पाठक के स्नेहिल पत्र ने मुझे भारत को विरासत में मिली गंगा - जमनी संस्कृति की याद दिला दी। जब हमारे मुस्लिम मित्र रमज़ान में रोज़े रख रहे थे, तो हिन्दु परिवार नवरात्रियों के व्रत - उपासना में व्यस्त थे और अब ईद और दीपावली भी हम लगभग साथ - साथ मनाने जा रहे हैं। मुझे हर बार बहुत खुशी होती है जब हिन्दीनेस्ट की विश्वव्यापी लोकप्रियता के चलते देश - विदेश से अनेक पत्र मिलते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव मन में चिरस्थायी हो जाता है। पिछले कई दिनों से मैं अपने पाठकों से एक विचार, एक बात बांटना चाहती थी। हम आज आधुनिक से आधुनिकतम होने की बात करते हैं। ग्लोबलाइज़ेशन की बात करते हैं। हम यही सोचते रहे हैं इतने बरसों की हमारी सभ्यता बहुत आगे निकल आई है। मीडिया द्वारा देश को एक सूत्र में बांध दिए जाने की बात करते हैं। जब पचास घण्टे तक सनी नामका एक बच्चा एक गहरे गड्ढे में फंसा था तो मीडिया ने ढेरों विज्ञापन बटोरते हुए उस बच्चे की स्थिति को लेकर उस बच्चे की स्थिति और आर्मी के जवानों की मेहनत का मिनट दर मिनट आंखों देखा हाल बता कर बहुत लोकिप्रियता हासिल कर ली थी। पिछले दिनों सनसनी ने तांत्रिकों की, रिश्वतखोरों, ढोंगी बाबाओं के डेरों की पोल खोल कर अपनी साख बना ली थी। लेकिन किन सभ्यताओं की, किस आधुनिकता की बात करते हैं? हम तो और पीछे लौट रहे हैं। किस मीडिया की बात कर रहे हैं, उन टेलीविज़न चैनल की जो ` मनोहर कहानिया', `सत्य - कथाएं' जैसी पत्रिकाओं की जगह ले रहे हैं। जो एक ओर सत्यकथाएं, प्रेम अपराध कथाएं, भ्रष्टाचार, ठगी, लूट और बड़े लोगों के घरों के सुराखों को दिखाते हैं, दूसरी तरफ पुर्नजन्म, भूत प्रेत, तांत्रिकों, भुतहा हवेलियों, नाग देवता के किस्से को दिखा कर अपनी टी आर पी बढ़ा रहे हैं। वही `सनसनी' कार्यक्रम का संचालक श्रीवर्धन ञिवेदी जो ढोंगी बाबाओं की पोल खोलता नज़र आता था, अब सनसनी कार्यक्रम के बीच में, `कौन है' जैसे भुतहा सीरियल की उदघोषणा भी करता है। हमारी आस्थाएं विडंबनात्मक तरीके से मीडिया द्वारा विकृत की जा रही हैं, और हम खामोशी से उनका विकृत होना देख रहे हैं। टेलीविजन होम शॉपिंग के बहाने हमारे धर्म - गुरु ग्रह के अनुरूप रत्न,स्र्द्राक्ष, ताबीज़, महामृत्युंजय जाप की सीडी - कैसेट खूब बेचे जा रहे हैं वह भी सीधे सीधे नहीं भावनात्मक तौर पर मार्केटिंग के हथकण्डों द्वारा ब्लैकमेल करके। इस मामले में फिर ईसाई और मुसलमान भी कैसे पीछे रह सकते हैं, वहां उन दर्शकों को लक्ष्य बना कर `खुदा का दरवाज़ा', ताबीज़ और चमत्कारी क्रॉस बेचे जा रहे हैं। बेजन दारू वाला और जैकी श्राफ राशि और ग्रह के अनुरूप रत्न बिकवा रहे हैं। आरतियों, भजनों, तरह तरह के जापों, वशीकरण मंत्रों और महामृत्युजंय जाप, कालसर्प योग के उपायों की सीडी कैसेट से बाज़ार भरे पड़े हैं। धर्म की दुकानें सजी हैं, आस्था को लोगों के मन के निजी कोनों से निकाल कर बोली लगाई जा रही है। पाप में आकण्ठ डूबे लोग पाप - पुण्य के हिसाब किताब से निजात पाने के लिए धर्म की दुकानों से बचाव का सामान खरीद रहे हैं। रिश्वत लो, शराब पियो, वेश्यागमन करो, अपने नैतिक कर्तव्यों से मुंह चुराओ, देश और समाज से परे स्वकेन्द्रित और स्वार्थी रहो और बस एक रत्न पहन कर, एक कैसेट चला कर या फेंगशुई या वास्तुशास्त्र के एक उपाय या उपकरण से सारे पापों से तुरन्त( इंस्टेन्ट!) मुक्त! धर्म भी अब बाज़ारवाद की गोद में फल - फूल रहा है। वही धर्म जो प्रेम की तरह हमारी नितान्त निजी भावना है। आस्था जो हमारे अन्तरतम की अनुभूति है, उसे इस उपभोक्तावाद ने अपहृत कर लिया है। ज़ी टीवी, स्टार, सोनी जैसे चैनल इस आस्था का सामूहिक बलात्कार कर रहे हैं। धर्म जिसे प्रचार - प्र्रसार और प्रवचनों के लिए मीडिया का सहारा नहीं लेना चाहिए या फिर मीडिया जिसे धर्म से एक निश्चित दूरी रखनी चाहिए थी वहीं वे एक दूसरे के विकृत होते जा रहे स्वरूप का धड़ल्ले से विज्ञापन करते नज़र आ रहे हैं। टी वी के जिस टेली शॉपिंग बाज़ार में जहां स्तन उन्नत करने और कटि क्षीण करने की दवाएं या उपकरण बिकते हैं, जिनके साथ गोरे होने की या बाल साफ करने की क्रीम मुफ्त मिला करती है, उसी पर बिकता है एक मुखी, पंचमुखी स्र्द्राक्ष जिसके साथ महामृत्युंजय जाप की कैसेट फ्री मिलती है। टेली शॉपिंग बाज़ार में हर चीज़ बिकाऊ है, जी हाँ आजकल धर्म भी। हमारे धर्म हमारे दिलों से उठ कर पूरी तड़क - भड़क के साथ जा सजे हैं बाज़ारों में। हमारे देवता बिकते हैं, टेली शॉपिंग बाज़ार में, एक के साथ एक फ्री की तर्ज पर। वशीकरण मंत्र, ताबीज़ पुराने नहीं लेटेस्ट ट्रेण्ड हैं। करवाचौथ का त्यौहार जो कभी गांव - मोहल्लों की स्त्रियां समूह में, शादी वाली चूनर ओढ़ कर, कथा कह कर, थालियां फिरा कर सादगी और पवित्रता के साथ मनाया करती थीं वहीं बाज़ारवाद की बदौलत यह एक दिखावे का त्यौहार बन गया है। मीडिया ने इसे भी टारगेट बना लिया है। स्त्रियां इस सादगी भरे त्यौहार पर भी डिज़ायनर साड़ियां, कोमलिका स्टायल की डिज़ायर लुक के पीछे बाज़ार भागती हैं और कथा की जगह सीडी चलती है, और सम्पूर्ण दिखावे और पाखण्ड के साथ यह त्यौहार मनाया जाने लगा है। मीडिया और मार्केट, जानते हैं उनके नाज़ुक शिकार कौन है! बच्चे और औरतें और उनकी भावनाएं। मीडिया अपनी भूमिका निभाने में स्वयं बाज़ार का गुलाम है, वह अपनी ज़िम्मेदारी कैसे निभाए, टी आर पी का सवाल है। लेकिन चैनलों की बाढ़, उस पर सच्ची कहानियों के नाम पर मीडिया का लोगों के बेडरूम में झांकना, दांपत्य में घुसपैठ करना, धार्मिक अंधविश्वासों, भूत प्रेतों की पाठशालाओं को कवर करना, इन सबसे से एक आम और औसत बुद्धि का दर्शक कब तक प्रभावित हुए बिना रह सकेगा? हमें इस सबसे से बचने के लिए किसका मुंह ताकना होगा? भारतीय सेन्सर बोर्ड का या सूचना प्रसारण मंत्रालय का? या स्वयं ही अपनी आंखें, चेतना और बुद्धि को खुला रख इन सबसे से प्रभावित होने से हरसंभव बचाना होगा। खैर... सद्भावना और सौहार्द से भरे भारत के दो महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावली और ईद करीब हैं, अपनी गंगा - जमनी परंपराओं के साथ इन्हें मनाएं। ऐसे में आज मुझे हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की कुछ पंक्तियां बेतहाशा याद आ रही हैं - मुसलमान औ' हिन्दु हैं दो एक, मगर, उनका प्याला एक, मगर, उनका मदिरालय एक, मगर, उनकी हाला दोनों रहते एक न जब तक मस्ज़िद - मंदिर में जाते बैर बढ़ाते मस्ज़िद - मंदिर, मेल कराती मधुशाला! ००००००००००००० एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाजी, जलती दीपों की माला; दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन को होली, रात दिवाली रोज़ मनाती मधुशाला!
शुभकामनाओं के साथ